मेरे प्रश्नों से ज्यादा उलझे हुए थे उत्तर
सोचता हूं बोलू या चुप्पी साध लू।
सोचता हूं बोलू या चुप्पी साध लू।
सत्य इतना जटिल भी होता है
पहले नही था अहसास कभी।
पहले नही था अहसास कभी।
हतप्रभ सी स्थिति में
कुछ भी सूझता नहीं था।
बरबस सब होता गया
सध सी गई मानो भीड़ में निरवता
और किसी दुर्जन में भी समता।
समय को मेरे शब्दों की ज़रूरत थी
और मज़बूरी को मौन की।
किसे अपना लू किसे नहीं
असमंजस हावी था विवेक पर
ये सब ऐसा था जैसे प्रकाश में
होता अंधेरे का अनुभव।
ठिठकती न्याय व्यवस्था
सिमटते विकल्प और समाधान
किंकर्तव्यविमूढ़ राजनीति आज
हर कोई जवाब की अपेक्षा में।
मै खड़ा कर्तव्य पथ के दौराहों पर
आहटें थी कुछ पदचापों की
सत्य मौन साधे एकांत में
और असत्य अकड़ रहा था।
----- अशोक मादरेचा