बस करो अब ये दिखावा
खुद जिंदगी तंग होने लगी है।
कभी तो सुन लो अंतर की पुकार
देखो वो तार तार होने लगी है।
क्या साबित करोगे,और किसे पड़ी है तुम्हारी
अहंकार की जमीन भी हिलने लगी है।
मीठे बोल कर जहर घोलते रहे चुपचाप
भरोसे की नीवं हिलने लगी है।
क्या बचाओगे, क्या संभालोगे
पानी में भी तो आग लगने लगी है।
जिनके जज्बातों से खेलते रहे ताजिंदगी
अब उनकी आँहें बहुत सताने लगी है।
आजकल जेबों में कुछ रुकता नहीं
उनमे भी पैबंद लगने लगी है।
आडम्बर की आड़ में खुद को गिराते गए
नतीजा देखो, दुनियां तुम्हे गिराने लगी है।
सच को झूठ कितना बनाओगे
समय की मार तो पड़ने लगी है।
अपनी सांसो पे गरूर करते हो
वो देखो धीमी हो गयी, शायद थमने लगी है।
(Hindi poem on living life with double standard)
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बस करो अब... (Enough is Enough)
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Oleh
Ashok Madrecha