( एक गुमराह पति के व्यवहार पर एक पत्नी की मनोदशा का चित्रण, एक कवि के शब्दों में )
इन निगाहों से तुम्हें बदलते देखा है
बारिशों में भी तुम्हें पिघलते देखा है।
बारिशों में भी तुम्हें पिघलते देखा है।
माना कि हममें भी कुछ कमियां है
बीच बाजारों में तुम्हें बिकते देखा है।
तुम कहते कि किसी को मारना नही
पर हमने तुम्हें बंदूके खरीदते देखा है।
महफिलों में अक्सर खामोश रहते हो
तन्हाइयों में खूब गाते देखा है।
क्यूं परिंदों को पानी पिलाते हो
कितनों के गुलशन उजाड़ते देखा है।
उलझा दी है जिंदगी दौड़-भाग में
कई दफा तुम्हें नींद में चलते देखा है।
कहते हो कि तुम शराबी नही
दबे पांव महख़ानों में जाते देखा है।
लौट कर कभी तो आओ घर पे
मैंने तो तुम्हें सिर्फ निकलते देखा है।
बर्दाश्त नही यूँ चुपचाप रोना तुम्हारा
क्या हुआ, तुम्हें तो हरदम हंसते देखा है।
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बदलते हमदम
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Oleh
Ashok Madrecha