सपनों का पीछा करता मनुज
गंतव्य को भूल बैठा
जब मंजिलें ना मिली
तो जहां रुका उसे ही मंजिल मान बैठा
जब कुछ खास हासिल ना हुआ तो
कुछ अखबारों की सुर्खियों में आकर
जीवन को धन्य मान बैठा...।
खैर जो हुआ सो हुआ
पर इसको आदत सी बना ली
अब तो नित्य ही कृत्रिम जिंदगी जी रहा
घूंट जहर के चुपचाप पी रहा
घूंट जहर के चुपचाप पी रहा
वो बतियाने को दोस्त भी ना साथ रहे
कुछ कहे तो भला किसको कहे....।
इतना आगे आ गए
कितने पीछे छूट गए
नदियों में पानी बहुत बहा
किनारों ने कितना सहा
चले थे कहां , मुकाम कुछ और मिले
भूलकर सब शिकवे और गिले
आ मेरे दोस्त हम फिर मिले
आ मेरे दोस्त हम फिर मिले....।
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