कितने पड़ाव पार कर इस यात्रा मे
क्यू आज फ़िर से अकेले खड़े …।
शायद बहुत कमाई धन दौलत
और नाम से भी हो गये बड़े …।
तलाशती आँखे अपनों को जो
इस दौड़ मे कब के बिछुड़े… ।
रिश्तों के पौधों को पानी ना पिलाया
पत्ते सूखे , डाली सूखी , सूख गइ झड़े…।
झूठी दीवारों को घर का नाम दिया
और आपाधापी मे , सबसे रिश्ते बिग़डे …।
अहंकार ने बदल दी , सारी परिभाषाएं
आकंठ दुखी होकर भी इतना अड़े …।
करुणा और मैत्री के रंग दिखते नहीं
हे मनुज तुम किस चक्कर मे पड़े …।
उलझने बढ़ती गई जीवन की राह मे
कहो मित्र ! तुम बड़े या तुम्हारे सपने बड़े …।
किस पर विजय पताका फ़हरानी हे जो
तुम हर पल , हर दम सबसे लड़े ……।
__________ अशोक मादरेचा
This poem is true feeling of a person for his close friend who has created lot of wealth but lost all his balance of life and now he is out of reach for him.
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