Showing posts with label प्रकृती. Show all posts
Showing posts with label प्रकृती. Show all posts

Jul 4, 2014

आलंबन (Dependence)



असुरक्षा की भावनाओ से ओत प्रोत हम हर वक्त आलंबन की तलाश करते रहते हें। क्यों स्वयं की क्षमता पर हम भरोसा नहीं करते ? हमेशा हम जाने अनजाने किसी ओर के सहारे से सब ठीक होगा ऐसा क्यों सोचने लग जाते हे ?
अन्दर का डर या आलसीपन या फिर सब यही कर रहे हे इसलिए मुझे भी ऐसा करना चाहिए। यदि हम विश्लेषण करे तो आश्चर्य होगा की कमोबेश हर व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति, स्थान या परिस्तिथि विशेष पर आश्रित सी जिंदगी जीता हे। यदि इसे अव्यक्त गुलामी भी कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। दूर द्रष्टी का नहीं होना इसका एक लक्षण अथवा कारण दोनों हो सकते हे।
हमारा स्वभाव स्वतंत्र हे परन्तु हम उसके सही स्वरुप को पुरी तरह नहीं पहचानते। जरा सा हिचकोला हमारे विश्वास को जड़ तक हिला देता हे।
ऐसा क्यों होता हे ? जन्म से अब तक हम सभी का परिवेश ही एसा हे कि हम सोचते भी उसी अनुरूप हे जेसे सब कुछ बाहर से ही संचालित होता हे भीतर की यात्रा के लिए तनिक भी तैयार नहीं हे।
सामान्य से सामान्य विषयों में हम धर्म, बाहरी शक्तियों ,कोई व्यक्ति विशेष, अथवा अन्य प्रतिको से अपेक्षा रखते हुए अपने निजी कार्यो का संपादन करा लेने की अपेक्षा रखते हे ओर अपेक्षित परिणाम नहीं मिलने पर इन माध्यमो को जाने अनजाने कोसने लग जाते हे और अपने प्रयत्नों पर जोर देना लगभग छोड़ देते हे।
हर वक़्त अवलंबन (Dependence) की मनोस्थिति के कारण जीवन को हम अच्छे से जी नहीं पाते।  उदाहरण के लिए उत्सव आनंद देने के बजाय तनाव देते हे। स्वतंत्रता की पहचान आनंद में व्यक्त हो तो ही हम कह सकते हे कि हमारे प्रयत्न सही दिशा में हे।

Jun 20, 2014

प्रकृति और अहसास (Nature and Feelings)

 एक अनोखी आभा सी
जब हर्दय ने महसूस की भीतर से
रश्मियों के पुंज का प्रकाश
फैला सब दिशाओं में
छट गया युगों का अँधेरा
बस कुछ ही पलों में
नव चैतन्य और श्रंगार से
सुसज्जित हुआ आकाश
चाँद भी लज्जित हुआ
सौंदर्य के प्रतिबोध से
सितारे अठखेलियां करने लगे नभ में
ओस की शीतलता ठहर गयी
कोपलों पे आकर तो
ह्रदय को नृत्य करते देखा पहली बार
नयनों से अमृत बरसने लगा बरबस ही
साक्षात सूर्य की लालिमा को आते हुए
और भोर को अंगड़ाई लेते देखा
प्रकृति की विराटता का आनंद बोध कहूँ इसे
या सचमुच का ईश दर्शन
पुलकित हो गए रोम रोम
पर  समकित होना बाकी है
मालूम नहीं , शायद यही शुरुआत हो ……....

May 28, 2014

मंजिल (Destination)


असीम संभावनाओं को तलाशती
निगाहे निहारती खोजती
दिन रात मंजिल को.…।
बेसबब सी इस तलाश में
होती रही पीड़ा चाहे
कितनी ही दिल को …।
आखिर लगे हमें भी
कुछ तो ठानी है कि
सफर ये कटे अकेला
या कोई साथ रहे
बस हमें तो चलना हे
यूँ भी रुकने का अंजाम
यहाँ कुछ अच्छा नहीं होता
तो जरा साथ चल कर तो देखो
शायद मंजिल मुस्कराती
सामने आ मिले
और मिटे सारे गिले
अब ज्यादा सोचो मत
बस कूच करो
इन रास्तों पे आगे बढ़ने में
वक्त जाया न करो …।

May 4, 2014

सत्य (Truth)



कितने पड़ाव पार कर इस यात्रा मे
क्यू आज फ़िर से अकेले खड़े …।
शायद बहुत कमाई धन दौलत
और नाम से भी हो गये बड़े …।
तलाशती आँखे अपनों को जो
इस दौड़ मे कब के बिछुड़े… ।
रिश्तों के पौधों को पानी ना पिलाया
पत्ते सूखे , डाली सूखी , सूख गइ झड़े…।
झूठी दीवारों को घर का नाम दिया
और आपाधापी मे , सबसे रिश्ते बिग़डे …।
अहंकार ने बदल दी , सारी परिभाषाएं
आकंठ दुखी होकर भी इतना अड़े …।
करुणा और मैत्री के रंग दिखते नहीं
हे मनुज तुम किस चक्कर मे पड़े …।
उलझने बढ़ती गई जीवन की राह मे
कहो मित्र ! तुम बड़े या तुम्हारे सपने बड़े …।
किस पर विजय पताका फ़हरानी हे जो
तुम हर पल , हर दम सबसे लड़े ……।
__________    अशोक मादरेचा
 This poem is true feeling of a person for his close friend who has created lot of wealth but lost all his balance of life and now he is out of reach for him.

Mar 24, 2014

संकल्प ( Determination )

संकल्प 

साधना के सोपान
जब दृष्टी के सामने हो
मन निर्मल और इरादे मजबूत हो
तो मंजिल क्यों नहीं मिलेगी
जरा गहराई में उतर कर तो देखो
लक्ष्य सामने रख कर तो देखो।
कष्ट भला किसे नहीं होता
राहे कौनसी निष्कंटक होती हे
सब बहाने हे मन को समझाने के।
सत्य से दूर भाग कर
कुछ क्षणों की राहत , आखिर
कब तक चलेगा ये सब कुछ।
चले आओ धरातल पर
यथार्त से जुड़ कर करो कूच आगे की
भुला दो इतिहास को
जीना तो सीखो वर्त्तमान में
जो हर पल चुकता जा रहा हे।
निकाल दो सभी संशय अपने मन से
अंतरिक्ष नापने का संकल्प लो
स्वयं की हस्ती को कुछ तो महसूस करो
प्रत्यक्ष परिणाम सामने आयेंगे
बस कुछ करने की जिद हो जिंदगी मे।

______     अशोक मादरेचा

Feb 20, 2014

खुशी के फूल

 

प्रसन्नता के प्राप्त होने  इन्तजार
हर कोई , हर पल इतना बेकरार
सिर्फ औरो को दोष देने का सिलसिला
इसीलिए खुशी का फूल न खिला ………।
मुक्त होने का मन पर बांधते रहे हरदम
अवरुद्ध क्यों हुए चलते चलते ये कदम
उठती हुई टीस का कारण भी तो होगा
सच्ची क्षमा से इस पीड़ा का निवारण भी होगा ………।
घनगोर घटाए गिर आयी , फैलने लगा अँधेरा
चमकी हे बिजलियाँ वहीं , हुआ फिर सवेरा
फैलने दो आकाश तक प्रार्थना के प्रकाश को
जी लो जीवन जी भर के , जाने मत दो मधुमास को………।
भ्रम को जगह मत देना , झूठ को सतह मत देना
नीति के धर्मयुद्ध में , अनीति को फतह मत देना
अहसास मनुष्यता का रखकर जीने का मजा कुछ और हे
शकून देकर किसी को अमृत पीने का मजा कुछ और हे ………।
पल प्रतिपल हम भावों का संसार खड़ा कर देते हे
सम्भले न सम्भलता इतना व्यापार बड़ा कर देते है
वक़्त विश्राम लेने की सलाह देता हे सरेआम
हम  व्यस्त हे , बहुत जरुरी हे हमारे काम ………।
खुद से संवाद भी नहीं कर पाते  पूरी जिंदगी
अब निश्चय स्वयं कर लो ये पूरी हे या अधूरी जिंदगी ………।

Jan 14, 2014

प्रकृती की सुंदरता का अहसास


प्रकृती के बिखरे ख़जाने को निहारते रहे
निरन्तर , बस बरबस से……
हरी चादर सि ओढ़ा दी , दूर तक वादियो में
सुदूर तक बर्फ की सफेदी और भोर की धूप
उमड़ते सैलानी , घाटी कि ओर पुरे मन से ....
निखरती छटाएँ , उमड़ती घटाएँ
नीले अम्बर से धरा तक फैले सौंदर्य के
अदभुत से नज़ारे , सचमुच द्रश्य नयनाभिराम
हर अवयक्त को उन्मुक्त करके व्यक्त करता
वातायन का सुन्दर सा विधान

Efforts कोशिश

बेशकीमती वक्त को मत जाया कर हासिल होगी मंजिल बस तू कोशिश तो कर ...। निकल बाहर हर भ्रम से रोज घूमता इधर उधर थोड़ा संभल और चलने की बस तू कोशिश...