Showing posts with label हिंदी कविता. Show all posts
Showing posts with label हिंदी कविता. Show all posts

Jan 10, 2015

पिता का पुत्र को संदेश




मुखर कर उन्मेष को उत्कर्ष की तरफ
प्रयत्न कर उखाड़ दे हर मायूसी की बर्फ।

ये तूफान ही रास्ता बनाएँगे बस जान लेना
वक़्त रहते रास्तों का मिजाज पहचान लेना।

दूर है मधुमास अभी बहुत बीहड़ में चलना बाकी
उलफत में मत रहना ये शुरुआत की है झांकी।

दो दो हाथ मुश्किलों से होना बहुत आम होगा
इंसानों की दुनियाँ में ये वाकया सुबह शाम होगा।

लक्ष्य पे नजर रखना दिन में भी कदम बहकते है
जरा सम्भलना हर गली मोहल्लों में इंसान रहते है।

आकाश नापना है तो इरादों में जोश होना चाहिए
दूर कितनी है मंजिल इसका भी होश होना चाहिए।

तान लो सुनहरे वितान वक़्त तुम्हे इंद्रधनुषी रंग दे
नया सवेरा हर सुबह तुम्हे चिर आशा की उमंग दे।

----  अशोक मादरेचा

Dec 17, 2014

काश हम समझ पाते




भीड़ के भावावेश का भाग बनकर
इतराते रहे कि मंजिले पास है
कुछ चेहरे हाँक रहे उस भीड़ को
सब समझते रहे कि हम भी कुछ ख़ास हे .…।
क्या खूब सबने बहते पानी में
हाथ धोये जी भर के
सुविधा से एकत्र हुए देखो
खुश सब मर्जी की करनी कर के .…।
पता चला कि पानी ही अच्छा नहीं है
उस भीड़ में कोई सच्चा नहीं है
पर झूठ अपना कर सच को खो दिया
तमाशा देख ज़माने का , ये दिल रो दीया .…।
अश्कों का मूल्य अब कहाँ होता है
जगते दानव दिन रात, मनुज सोता है
सीधे रास्ते छोड़कर सब उलझनों में पड़ गये
कल के मासूम आज कितना अकड़ गये .…।
दुआ-सलाम का जमाना गुजर गया
बस कोई इधर गया कोई उधर गया
महंगी हुई मुस्कानें, देखो इन चेहरों की
आवाजों का असर नहीं होता, सारी बस्ती बहरों की .…।
- अशोक मादरेचा

Nov 22, 2014

उम्मीदों का आँगन



वक्त के भाल पर सिलवटें बढ़ने लगी
मंजिल साधने आरजु उमड़ने लगी।
जान लो कि में ना थका नहीँ हारा हूं
आज भी बदस्तुर सिर्फ तुम्हारा हूँ।
तपते रेगिस्तान में फुहार आई
आप क्या आये बहार आयी।
इंतजार तो बहुत हुआ पर गम नहीं
सामने हो आप ये कुछ कम नहीं।
वादा करो हर वक़्त रूबरू रहोगे
हमसे हर गिला शिकवा कहोगे।
रोशन हुआ जहां आपकी नजरो से
क्या खूब निकले हम सब खतरों से।
साकार करेंगे हर एक सपना
आबाद रहे ये सकून अपना।

- अशोक मादरेचा

Sep 23, 2014

सच्चाई


ख़ुशी की खोज बाहर करना
फिर पुरानी गलती दोहराना
सुख शांति के दो पल पाने की
अभिलाषा बस कुछ कर जाने की
कोशिश करना व्यर्थ नहीं होता
प्रयत्नों से कौन समर्थ नहीं होता
ले नहीं पाते जिंदगी उतना देती हे
ज़माने का दोष नहीं, कर्मो की खेती हे
कई बार साफ़ दिखता भी हे
पर समझ कम पड़ जाती हे
दिग्भ्रमित से मंजिलो की तलाश में
कुछ मिलेगा हर वक़्त इसी आस में
स्वयं की व्यवस्था में लगे दिन रात
झूठ के सहारे करते रहे हर बात।
जब सच्चाई सामने प्रकट होगी
स्थिति स्वयं बड़ी विकट होगी
दर्पण से सामना नहीं कर पाओगे
अपना चेहरा खुद ही छुपाओगे
समय को कौन रोक पाता हे
ये तो बस बीतता जाता हे
ये तो बस बीतता जाता हे.…।

Sep 8, 2014

घर और इंसान



हमने ठिकाने बना लिए और
उनको मकानों का दर्जा भी दिया
काश घर बनाये होते
बेशक इतना कर्जा भी लिया।
हर दीवार चमकीली हे
सजा दिया बहुत सुन्दर तरीके से
गरूर का सामान बना दिया
क्या सकून भी लाये कुछ सलीके से।
सब सामान की जगह बना दी
हर कोने को भर दिया
आ जाते बूढ़े माँ बाप साथ रहने को
लगता कुछ तो अच्छा कर दिया।
हम आग से खेलते हे
पानी में बहते हुए
जिंदगी गुजार लेते हे
अजनबी से रहते हुए।
दौरे खुदगर्जी के तूफान में
इल्म रास नहीं आएगा
चलते रहना , गिरना मत
वर्ना कोई पास नहीं आएगा।
मकान तो बहुत हे कहने को
घर कहाँ मिलते हे
शरीर बहुत हे चलते फिरते
पर साथ चलने को इंसान कहाँ मिलते हे ।

Jul 4, 2014

आलंबन (Dependence)



असुरक्षा की भावनाओ से ओत प्रोत हम हर वक्त आलंबन की तलाश करते रहते हें। क्यों स्वयं की क्षमता पर हम भरोसा नहीं करते ? हमेशा हम जाने अनजाने किसी ओर के सहारे से सब ठीक होगा ऐसा क्यों सोचने लग जाते हे ?
अन्दर का डर या आलसीपन या फिर सब यही कर रहे हे इसलिए मुझे भी ऐसा करना चाहिए। यदि हम विश्लेषण करे तो आश्चर्य होगा की कमोबेश हर व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति, स्थान या परिस्तिथि विशेष पर आश्रित सी जिंदगी जीता हे। यदि इसे अव्यक्त गुलामी भी कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। दूर द्रष्टी का नहीं होना इसका एक लक्षण अथवा कारण दोनों हो सकते हे।
हमारा स्वभाव स्वतंत्र हे परन्तु हम उसके सही स्वरुप को पुरी तरह नहीं पहचानते। जरा सा हिचकोला हमारे विश्वास को जड़ तक हिला देता हे।
ऐसा क्यों होता हे ? जन्म से अब तक हम सभी का परिवेश ही एसा हे कि हम सोचते भी उसी अनुरूप हे जेसे सब कुछ बाहर से ही संचालित होता हे भीतर की यात्रा के लिए तनिक भी तैयार नहीं हे।
सामान्य से सामान्य विषयों में हम धर्म, बाहरी शक्तियों ,कोई व्यक्ति विशेष, अथवा अन्य प्रतिको से अपेक्षा रखते हुए अपने निजी कार्यो का संपादन करा लेने की अपेक्षा रखते हे ओर अपेक्षित परिणाम नहीं मिलने पर इन माध्यमो को जाने अनजाने कोसने लग जाते हे और अपने प्रयत्नों पर जोर देना लगभग छोड़ देते हे।
हर वक़्त अवलंबन (Dependence) की मनोस्थिति के कारण जीवन को हम अच्छे से जी नहीं पाते।  उदाहरण के लिए उत्सव आनंद देने के बजाय तनाव देते हे। स्वतंत्रता की पहचान आनंद में व्यक्त हो तो ही हम कह सकते हे कि हमारे प्रयत्न सही दिशा में हे।

Jun 20, 2014

प्रकृति और अहसास (Nature and Feelings)

 एक अनोखी आभा सी
जब हर्दय ने महसूस की भीतर से
रश्मियों के पुंज का प्रकाश
फैला सब दिशाओं में
छट गया युगों का अँधेरा
बस कुछ ही पलों में
नव चैतन्य और श्रंगार से
सुसज्जित हुआ आकाश
चाँद भी लज्जित हुआ
सौंदर्य के प्रतिबोध से
सितारे अठखेलियां करने लगे नभ में
ओस की शीतलता ठहर गयी
कोपलों पे आकर तो
ह्रदय को नृत्य करते देखा पहली बार
नयनों से अमृत बरसने लगा बरबस ही
साक्षात सूर्य की लालिमा को आते हुए
और भोर को अंगड़ाई लेते देखा
प्रकृति की विराटता का आनंद बोध कहूँ इसे
या सचमुच का ईश दर्शन
पुलकित हो गए रोम रोम
पर  समकित होना बाकी है
मालूम नहीं , शायद यही शुरुआत हो ……....

Jun 4, 2014

प्यार का संदेश (Message of Love )


हर रंग की चमक में बसते हो
कोई से भी गम में हँसते हो।
ये दिलेरी हे या अदाकारी
प्रेरित हो या , खुद की समझदारी।
बख़ूबी सब कुछ छुपाते हो
बस सिर्फ मुस्कराते हो।
मासूम चेहरा, इरादों से बुलंद हो
बोलते कम , बड़े स्वछंद हो।
हर पल ख्याल तेरा ही क्यों आता हे
क्या नाम दू इसे , जाने कौनसा नाता हे।
गीतों के गुंजन से भरा तेरे लबो का अहसास
समझ भी लेते मन की बात , तुम काश।
अब दूर नहीं रहना हे
मुझे कुछ कहना हे।
ये पैगाम पढ़कर रुक मत जाना
देर हुई पहले ही , अब मत सताना।
 ये हे प्यार का फ़साना , अब क्या जताना
मेरे मीत जल्दी आना , बस जल्दी आना।
------------ Ashok Madrecha

May 4, 2014

सत्य (Truth)



कितने पड़ाव पार कर इस यात्रा मे
क्यू आज फ़िर से अकेले खड़े …।
शायद बहुत कमाई धन दौलत
और नाम से भी हो गये बड़े …।
तलाशती आँखे अपनों को जो
इस दौड़ मे कब के बिछुड़े… ।
रिश्तों के पौधों को पानी ना पिलाया
पत्ते सूखे , डाली सूखी , सूख गइ झड़े…।
झूठी दीवारों को घर का नाम दिया
और आपाधापी मे , सबसे रिश्ते बिग़डे …।
अहंकार ने बदल दी , सारी परिभाषाएं
आकंठ दुखी होकर भी इतना अड़े …।
करुणा और मैत्री के रंग दिखते नहीं
हे मनुज तुम किस चक्कर मे पड़े …।
उलझने बढ़ती गई जीवन की राह मे
कहो मित्र ! तुम बड़े या तुम्हारे सपने बड़े …।
किस पर विजय पताका फ़हरानी हे जो
तुम हर पल , हर दम सबसे लड़े ……।
__________    अशोक मादरेचा
 This poem is true feeling of a person for his close friend who has created lot of wealth but lost all his balance of life and now he is out of reach for him.

प्रयास (Efforts)

जब सब कुछ रुका हुआ हो तुम पहल करना निसंकोच, प्रयास करके खुद को सफल करना। ये मोड़ जिंदगी में तुम्हें स्थापित करेंगे और, संभव है कि तुम देव तु...